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हे मातृ भूमि ...

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  हे मातृ भूमि ,,, ————- हे मातृभूमि तेरे वन्दे हम सुबह – शाम करते नमन हम हैं नन्हे – मुन्हे नहीं हमें हैं रंज बचपन बीता तेरे चरणों की धूल में कभी न हम रूठे कभी न हम बहके बचपन में सखा से लड़े आम – पीपल की छांव में बैठे कभी नहाए कभी नहाए ही नहीं तन पर मटमैले कपड़े पहने फटे पैंट पहन कर भी रहे खुश नहीं था बचपन में कोई अभिमान नहीं थी कोई अभिलाषा बीत गया सुनहरा पल अब न कोई है अपना स्कूल की ओ मीठी यादें बेर चुराकर हमने खाये इमली पेड़ पर भी झूला झूले तालाब की पनघट पर खूब नहाए हाट बाजार में भी खेले दौड़ा दौड़ी कभी नहीं थके हम भाई बचपन बीता भूले सब अमराई जीवन की भागम भाग में अब बचपन फिर याद आयी मां की लोरी अब कहाँ सुनने को है मिलता अब तो जीवन का मतलब ही है बदला हे मातृ भूमि अब बचपन की वंदना हम भूले रिस्ते भी अब रिस्तेदार निभाते नहीं इंसान को समझ पाना अब बड़ी बात है ये जीवन मेरा तेरा उपकार है हे मातृ भूमि तेरे वन्दे हम ,,, लक्ष्मी नारायण लहरे “साहिल ”

कविता /महुआ -लक्ष्मी लहरे

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कविता /महुआ ————– पिंवर पिंवर दिखत हे डारा पाना संग झूलत हे नोनी के दाई बिनसरिहा ल महुआ ल बिनत हे बरछा के मेड म हावे महुआ के कोरी अकन पेड़ बरछा ह महमहावत हे मन ह हरसावत हे मीठ मीठ महक ले बरछा ह महकत हे रस्दा रेंगईया मन महुआ ल देखत हें नोनी के दाई कोंघर के महुआ ल बिनथ हे बिन बिन के झांहु म धरथ हे महुआ ल बिन के रोजी रोटी चलथ हे महुआ के हावें अबड़ मान देवी – देवता के भोग म चढ़त हे जिनगी के संदेस छुपे हावे महुआ म भुईंया म गिर के सुघ्घर महकत हे जिनगी के मीठ मीठ संदेस देवथ हे पिंवर पिंवर दिखत हे डारा पाना संग झूलत हे बरछा ह महमहावत हे जिनगी के सुघ्घर संदेस गुंगुनावत हे लक्ष्मी नारायण लहरे ” साहिल ”

कविता / छिम्मियाँ की छिम -छिम आवाजें ...

  कविता   छिम्मियाँ की छिम -छिम आवाजें ... ------------- पतझड़ की आहट और बसंत की दस्तक  मन में उमंग और उमंगित का विषय भर नहीं है  गुलाबी ठंठ की अलविदा की भी कहानी छुपी है  सूर्य की किरणें तेज होते हुए भी गुमनाम लगती है  जब सावन का महीना दिन भर बादल बरसती है  ऋतुओं का राजा बसंत जब आता है  पतझड़ की नव -सुबह पेड़ों में खुशियाँ लाता है  अमरैय्या में पहटिया का दस्तक  गाय -बैलों के बीच का एक आँगन में सम्बन्ध  यह कोई समझौता नहीं एक दूसरे के प्रति स्नेह भाव है  बसंत की दस्तक से  उपवन और बागियों में बाहर उमड़ पड़ी है  सिसम की ऊँचे -ऊंचे वृक्ष में महकती फूलों की बहार है  गुलमोहर और पसरसें भी खिलने को ब्याकुल हैं  पतझड़ बूढ़ा हो चला है  बसंत अपनी नव उम्मीदों से चहक रही है  प्रकृति की सुंदरता मन को हर्षित लग रही है  सिसम में लगे फल डालियों में हिल -डुल रहे हैं  सूखे छिम्मियाँ की छिम -छिम आवाजें  छंद बद्ध हवा की लहरों से बज रही है  लय बद्ध छिम -छिम की आवाजें  संगीत की धुन की तरह मन को भा रही है  अपने छंद और लय से बंसत की स्वागत गीत गा रही है  छिम -छिम की आवाजें मन को भरमा रही है  पतझड़ की गीत बसंत को सुना

महानदी ल बचावा ग ...

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